कर रहा है सामना तीर-ए-निगाह-ए-नाज़ का अल्लह अल्लह ये कलेजा आशिक़-ए-जाँबाज़ का क़त्ल ही मंज़ूर है गर आशिक़-ए-जाँबाज़ का वार हो जाए कोई तेग़-ए-निगाह-ए-नाज़ का दर्द से हो वास्ता ऐ हम-नफ़स आवाज़ का सोज़ अगर हासिल नहीं तो लुत्फ़ क्या फिर साज़ का हर क़दम पर उठते हैं फ़ित्ने सलामी के लिए क्या क़यामत-ख़ेज़ है आलम ख़िराम-ए-नाज़ का फ़ासला जितना है फ़र्श-ओ-अर्श में वो कुछ नहीं है ज़ियादा से ज़ियादा मेरी इक परवाज़ का है जबीं मेरी किसी के आस्तान-ए-पाक पर देखता हूँ आज ये मंज़र नियाज़-ओ-नाज़ का जैसे मेरे दिल में तेरा ध्यान है ऐ हम-नशीं है मिरी आवाज़ पर धोका तिरी आवाज़ का कर दिया बेहोश मुझ को जल्वा-हा-ए-नाज़ ने इस क़दर एहसाँ है मुझ पर जल्वा-गाह-ए-नाज़ का कर रहे हो तुम जिसे पामाल वो दिल ख़ैर से आशिक़-ए-जाँबाज़ का है आशिक़-ए-जाँबाज़ का जल्वा-पाशी की तो हुस्न-ए-रोज़-अफ़्ज़ूँ ने कहा ज़र्रा ज़र्रा है मुनव्वर जल्वा-गाह-ए-नाज़ का अब तो हर शय में वही जल्वा नज़र आने लगा मेरी आँखों में है जल्वा जिस हरीम-ए-नाज़ का क़ब्र पर देखा हुजूम-ए-आशिक़ाँ तो ये कहा हम मिटा देंगे मज़ार अपने शहीद-ए-नाज़ का ताइर-ए-दिल को उड़ा लेते हैं पैकान-ए-नज़र है ये इक अदना करिश्मा मेरे तीर-अंदाज़ का दिल से जब निकली शब-ए-फ़ुर्क़त तो पहुँची अर्श पर था मिरी आह-ए-रसा में ज़ोर क्या परवाज़ का हज़रत-ए-मूसा जो मिल जाते कहीं 'साबिर' हमें पूछते कुछ हाल उन से जल्वा-गाह-ए-नाज़ का