करम कुछ इस तरह से कातिब-ए-तक़दीर करता है सज़ा देने में बंदों को सदा ताख़ीर करता है अजब दीवानगी-ए-शौक़ से तदबीर करता है कोई तो है मुसलसल जो मुझे ता'मीर करता है पहुँचती है कहाँ आवाज़ उन ऊँचे मकानों में कोई महरूमियों को नाला-ए-शबगीर करता है मुझे गुमनाम रहने ही नहीं देता किसी सूरत वो चारागर मिरे ज़ख़्मों की यूँ तश्हीर करता है अमीर-ए-वक़्त किस मंज़िल में पहुँचा है जुनूँ तेरा निदा-ए-सुब्ह-ए-नौ को हल्क़ा-ए-ज़ंजीर करता है लगा दो बंदिशें शहर-ए-दिल-आरा के मकीनों पर वही बस ख़्वाब देखे ख़्वाब जो ता'बीर करता है ख़बर भी है तुझे ऐ हुस्न-ए-बेपर्दा सर-ए-महफ़िल तिरी सूरत को आँखों में कोई तस्वीर करता है ख़ता करता हूँ जैसे मैं कोई लगता है यूँ मुझ को तुझे जब याद रखने में ये दिल तक़्सीर करता है सुनो ऐ हाकिम-ए-दौराँ मोअर्रिख़ वक़्त है ऐसा वो जो कुछ देखता है बस वही तहरीर करता है दिलों पर हुक्मरानी यूँही 'अशहर' की नहीं क़ाएम मोहब्बत की सभी के नाम वो जागीर करता है