हैं वज़ीफ़े साथ सुब्ह-ओ-शाम के वर्ना हम दुनिया में हैं किस काम के ले उड़ी है आग नफ़रत की हवा देखना रक़्स-ए-शरर दिल थाम के कैसे मुमकिन है तिरे होते हुए दिन मयस्सर हों कभी आराम के सुब्ह-ए-नौ हम ने उसे समझा मगर दे गया मंज़र वो सारे शाम के ऐसी बेकारी न थी पहले कभी मश्ग़ले भी अब नहीं आलाम के देख कर हम अहल-ए-दिल की मस्तियाँ होश गुम हैं गर्दिश-ए-अय्याम के रूह तस्लीम-ओ-रज़ा की मिट गई रह गए 'अशहर' मुसलमाँ नाम के