दिल ग़म का तलबगार है मा'लूम नहीं क्यूँ राहत से ये बेज़ार है मा'लूम नहीं क्यूँ हक़ ये है कि हम दोनों मोहब्बत में बंधे हैं लेकिन उसे इंकार है मा'लूम नहीं क्यूँ जो मो'तबर था अहल-ए-ज़माना की नज़र में रुस्वा सर-ए-बाज़ार है मालूम नहीं क्यूँ मैं भूलना चाहूँ भी भुला पाऊँ न उन को कुछ ऐसा सरोकार है मालूम नहीं क्यूँ जो भी हो ग़लत बात झटक देता है अक्सर इस दर्जा वो ख़ुद्दार है मालूम नहीं क्यूँ इंसान किसी बात पे रहता नहीं क़ाएम ये ज़ेहन से बीमार है मालूम नहीं क्यूँ ख़ामोश सी रहती है ज़बाँ उस की बराबर दिल माइल-ए-गुफ़्तार है मालूम नहीं क्यूँ क़ुर्बत भी किसी की नहीं है रास 'करन' को ये ख़ुद से ही बेज़ार है मालूम नहीं क्यूँ