कर्ब के सहरा से गुज़रा जब भी दीवाना कोई मुस्कुराया शाख़-ए-नाज़ुक पर चमन-ख़ाना कोई मौसम-ए-बरसात है और वज्द में हैं लाला-ज़ार दुश्मनों के वार से छलका है पैमाना कोई रात भर रोती रही बे-सूद शम-ए-आरज़ू जब सर-ए-महफ़िल चला आया है परवाना कोई अजनबी बस्ती के लोगों से ज़रा नज़रें मिला मिल ही जाएगा यहाँ भी जाना-पहचाना कोई ऐ दिल-ए-'मानी' यूँही मंज़िल कभी मिलती नहीं राह-ए-उल्फ़त में दिया करते हैं नज़राना कोई