ऐ असीरान-ए-तिलिस्म-ए-शब-ए-ग़म सो जाओ शम-ए-उम्मीद की लो हो गई कम सो जाओ चाँद-तारों की चमक हो गई कम सो जाओ सरहद-ए-सुब्ह में हैं शब के क़दम सो जाओ अब न जागो किसी गुज़री हुई शब की यादो तुम को हम जागने वालों की क़सम सो जाओ बुझ गई शम्अ' भी परवाने भी दम तोड़ चुके उन के आने की अब उम्मीद है कम सो जाओ डबडबाई हुई आँखो तुम्हें अश्कों की क़सम खुल न जाए कहीं उल्फ़त का भरम सो जाओ ग़म के मारों को सुकूँ मिलता है मयख़ाने में जाओ छेड़ो न हमें शैख़-ए-हरम सो जाओ दिल धड़कने की भी आवाज़ है साकित 'माहिर' अब नहीं कोई शरीक-ए-शब-ए-ग़म सो जाओ