कर्ब वहशत उलझनें और इतनी तन्हाई कि बस जाने क्यूँ तक़दीर ने ली ऐसी अंगड़ाई कि बस जब कभी भूले से भी आईना देखा तेरे बा'द अपनी ही सूरत में वो सूरत नज़र आई कि बस तोड़ने जब भी चला ज़िंदान-ए-आब-ओ-गिल को मैं जानी-पहचानी हुई आवाज़ इक आई कि बस चिलचिलाती धूप ग़म की हादसों के साएबाँ सोच का तपता ये सहरा और ये पुर्वाई कि बस काश ना-बीना ही रहता इस मुक़ार-ख़ाना में तोहफ़तन दुनिया ने दी है ऐसी बीनाई कि बस नोचती कब तक रहेंगी यूँ बरहना ख़्वाहिशें ता-ब-कै होती रहेगी ऐसी रुस्वाई कि बस मैं हूँ ऐ 'हमदून' इक ज़िंदा गिरफ़्तार-ए-लहद अपनी ही तक़दीर से ठोकर वो है खाई कि बस