कर्ब-ए-तख़्लीक़ का छाया रहा मंज़र मुझ पर आयत-ए-इश्क़ उतरती रही शब भर मुझ पर एक साअ'त को भुलाया था ग़म-ए-इश्क़ अभी बंद होने लगा तख़्लीक़ का हर दर मुझ पर जागते वक़्त वही शख़्स लबादा था मिरा नीम-शब को जो उतारा गया पैकर मुझ पर चील कव्वों की तरह खा गए रिश्ते मेरे फिर भी इल्ज़ाम धरा जाता है मुझ पर मुझ पर ख़ल्क़ ने नावक-ए-दुश्नाम से छलनी कर के जब्र के तीर चलाए हैं बराबर मुझ पर शाम होते ही उदासी की हवा चलती है टूट पड़ता है ख़यालात का लश्कर मुझ पर जब कभी मेरी तवज्जोह में ख़लल आता है फूँक देता है कोई इश्क़ का मंतर मुझ पर 'आब्दी' इश्क़ अदावत है कहा था इक दिन अक्स मेरा ही चलाने लगा ख़ंजर मुझ पर