क़र्ज़-ए-जाँ से निमट रही है हयात उस की जानिब पलट रही है हयात रफ़्ता रफ़्ता घटा छटे जैसे बस इसी तरह छट रही है हयात चेहरा पहचान तक नहीं पाती गर्द में इतनी अट रही है हयात जैसे सूरज ग़ुरूब होता है फैल कर यूँ सिमट रही है हयात कितने मंज़र हैं एक मंज़र में कितने हिस्सों में बट रही है हयात कोई उस को बढ़ा न पाया 'अदील' लम्हा लम्हा जो घट रही है हयात