कारोबार-ए-ज़िंदगी से जिस का दिल घबराएगा यार की ज़ुल्फ़-ए-रसा के साए में आ जाएगा तज़्किरा रुख़्सार का या ज़िक्र-ए-ज़ुल्फ़-ए-यार हो कैफ़ आँखों में यक़ीनन कुछ न कुछ छा जाएगा जो मनाज़िर आज तक तुम ने कभी देखे नहीं कोई तुम को वो मनाज़िर एक दिन दिखलाएगा अब करम-फ़रमाइयाँ हों या इताब-ए-नाज़ हो आप के दस्त-ए-करम से दिल सिला कुछ पाएगा वक़्त की उलझी हुई ज़ुल्फ़ें सँवारें किस तरह अहल-ए-दिल को ये सलीक़ा ख़ुद-बख़ुद आ जाएगा आप पहले हँस के ग़म खाते रहे 'साबिर' मगर अब यही ग़म रफ़्ता रफ़्ता आप को खा जाएगा