करता है रहम कौन किसी बे-गुनाह पर पड़ते हैं ताज़ियाने यहाँ दाद-ख़्वाह पर शिकवा है बेवफ़ाई-ए-जानाँ का इस क़दर हम मर चले हनूज़ न आए वो राह पर दिल ख़ुद हुआ असीर ज़ख़ंदान-ए-यार में लाती है तिश्नगी ही प्यासे को चाह पर शबनम को महव करता है जिस तरह आफ़्ताब या-रब निगाह-ए-मेहर हो मेरे गुनाह पर आशिक़ पे रहम कर शह-ए-ख़ूबाँ अगर है तू वाजिब है शफ़क़त-ए-ग़ुरबा बादशाह पर वो चेहरा-ए-किताबी है ज़ुल्फ़-ए-दोता में यूँ मुसहफ़ को जैसे रखते हैं दस्त-ए-गवाह पर