ज़मीं की आँख ख़ाली है दिनों ब'अद फ़लक पर ख़ुश्क-साली है दिनों ब'अद सजाने ख़ाक का बिस्तर लहू ने अलग क्या रह निकाली है दिनों ब'अद कहीं चश्म-ए-जबीं फिर खुल न जाए कि दश्त-ए-दिल जलाली है दिनों ब'अद समझ में वक़्त का आया करिश्मा नज़र ख़ुद पर जो डाली है दिनों ब'अद कहा उस ने बिल-आख़िर मुस्कुरा कर तिरी दुनिया निराली है दिनों ब'अद अजब इक कश्मकश सी अंदरूँ है ज़िया भी काली काली है दिनों ब'अद कोई मजनूँ मगर आता नहीं है मिरा सहरा सवाली है दिनों ब'अद ख़ुदा रक्खे तुझे आबाद 'साजिद' ग़ज़ल तू ने बना ली है दिनों ब'अद