करूँ शिकवा न क्यूँ चर्ख़-ए-कुहन से कि फ़ुर्क़त डाली तुझ से गुल-बदन से तिरी फ़ुर्क़त का ये सदमा पड़ा यार ज़बाँ ना-आश्ना हो गई सुख़न से दम-ए-तकफ़ीन भी गर यार आवे तो निकलें हाथ बाहर ये कफ़न से खिला है तख़्ता-ए-लाला-जिगर में हमें क्या काम अब सैर-ए-चमन से न पहुँचा गोश तक इक तेरे हैहात हज़ारों नाला निकला इस दहन से दिमाग़-ए-जाँ में है ये बू-ए-काकुल कि नफ़रत हो गई मुश्क-ए-ख़ुतन से जिगर पर लाख तेशे ग़म के नित हैं रही निस्बत हमें क्या कोहकन से 'सुरूर' आता है जब वो याद-दिलबर तो जाँ बस मेरी हो जाती है सन से