करूँ जो कोशिश तो तुझ दिए को जला ही लूँगा मुझे यक़ीं है मैं तुझ को अपना बना ही लूँगा जहाँ ज़माने की तल्ख़ियों को मैं झेलता हूँ वहाँ मैं तेरे भी चार नख़रे उठा ही लूँगा ये मेरी अपनी ही ढील है या ख़फ़ा है तू भी मैं जब मनाने पे आ गया तो मना ही लूँगा मैं मानता हूँ कि मैं मुसव्विर नहीं हूँ कोई तुम्हारी आँखें तो यार लेकिन बना ही लूँगा मिरे किए पर तमाम गाँव के लोग ख़ुश थे मुझे यक़ीं है मैं सब घरों से दुआ ही लूँगा चराग़ सारे के सारे बे-शक न बच सके पर मैं अपने हिस्से का इक दिया तो बचा ही लूँगा मुझे बिठाने की तुझ को कोई न फ़िक्र होगी मैं आ गया हूँ तो फिर जगह भी बना ही लूँगा