कशाकश-ए-ग़म-ए-लैल-ओ-नहार से निकलें हो ख़त्म उम्र तो इस कर्बज़ार से निकलें तिलिस्म-ए-ख़ुद-निगरी तोड़ कर तू बाहर आ तो हम भी अपनी अना के हिसार से निकलें हमारे अक्स में धुंदलाहटें हैं माज़ी की ग़ुबार दिल का छटे तो ग़ुबार से निकलें वहाँ भी सख़्त मसाइल का सामना होगा तो किस उमीद पे इस रेगज़ार से निकलें हम अपनी हद से तजावुज़ तो कर नहीं सकते हुज़ूर आप ही क़ैद-ए-वक़ार से निकलें समझ लो ज़ौक़-ए-अदब पर मआश हावी है जरीदे शहर में जब इश्तिहार से निकलें