क़सीदा फ़त्ह का दुश्मन की तलवारों पे लिक्खा है जो हम ने नारा-ए-तकबीर यल्ग़ारों पे लिक्खा है शनासाई भी तेरे शहर में जब अजनबी ठहरी तो अपना नाम हम ने घर की दीवारों पे लिक्खा है शब-ए-ग़म आसमाँ को ताकता रहता हूँ पहरों यूँ कि जैसे गर्दिश-ए-क़िस्मत का हल तारों पे लिक्खा है अमल से दोस्तो दुनिया है जन्नत भी जहन्नम भी निसाब-ए-ज़िंदगी इंसाँ के किरदारों पे लिक्खा है उसे पूजे है 'मुज़्तर' उगता सूरज जान कर दुनिया कि जिस ने नाम अपना वक़्त के धारों पे लिक्खा है