कसरत-ए-जल्वा को आईना-ए-वहदत समझो जिस की सूरत नज़र आए वही सूरत समझो ग़म को ग़म और न मुसीबत को मुसीबत समझो जो दर-ए-दोस्त से मिल जाए ग़नीमत समझो झुक के जो सैंकड़ों फ़ित्नों को जगा सकती हैं वो निगाहें अगर उट्ठें तो क़यामत समझो नहीं होते हैं रिया-कारी के सज्दे मुझ से मैं अगर सर न झुकाऊँ तो इबादत समझो रफ़्ता रफ़्ता मिरी ख़ुद्दारी से वाक़िफ़ होगे अभी कुछ दिन मिरे अंदाज़-ए-मोहब्बत समझो जल्वा देखोगे कहाँ दिल के अलावा अपना मिरे टूटे हुए आईने की क़िस्मत समझो कम नहीं दूर असीरी में सहारा ये भी क़ैद में याद-ए-नशेमन को ग़नीमत समझो ख़ूब समझाया है ये कातिब-ए-क़िस्मत ने हमें जो मयस्सर हो जहाँ में उसे क़िस्मत समझो हम-जफ़ाओं को भी अंदाज़-ए-इनायत समझें और तुम शुक्र-ए-सितम को भी शिकायत समझो मेरी आँखों में अभी अश्क बहुत बाक़ी हैं तुम जो महफ़िल में चराग़ों की ज़रूरत समझो ऐ 'सबा' क्यूँ हो दर-ए-ग़ैर पे तौहीन-तलब अपने ही दर को हमेशा दर-ए-दौलत समझो