कोई चराग़ अता कर कोई गुलाब उतार वगर्ना शहर-ए-सितम पर वही अज़ाब उतार ज़मीन-ए-शहर को इस दर्जा मुंजमिद कर दे हर एक चीख़ उठे सर पे आफ़्ताब उतार हमें बरहना किया तू ने हर ज़माने में ज़मीं पे तू भी कभी ख़ुद को बे-हिजाब उतार हर एक हाथ में या कासा-ए-गदाई दे वगर्ना सब के लिए रिज़्क़ बे-हिसाब उतार मैं तेरे नूर का मुंकिर नहीं फ़लक वाले मगर ज़मीं पे कभी अपना माहताब उतार