काट रहा हूँ इक इक दिन आज़ार के साथ जैसे रात गुज़रती है बीमार के साथ शोहरत तन्हा तय करती है रस्ते को उड़ कर फूल नहीं जाता महकार के साथ हिज्र का मौसम ले कर सूरज निकला है बर्फ़ लिपट कर रोती है कोहसार के साथ घर की हर शय तेरी याद दिलाती है ध्यान में चिड़िया आ जाए चहकार के साथ एक ही झोंका बिखरा देगा पत्तों को कब तक मिल कर बैठेंगे दीवार के साथ वक़्त ने लिख कर काट दिए हैं उन के नाम जिन का सिक्का चलता था तलवार के साथ 'ख़ावर' क्या क्या शक्लें बनती रहती हैं तन्हाई में यादों की परकार के साथ