कटा न कोह-ए-अलम हम से कोहकन की तरह बदल सका न ज़माना तिरे चलन की तरह हज़ार बार किया ख़ून-ए-आरज़ू हम ने जबीन-ए-दहर पे फिर भी रहे शिकन की तरह सवाद-ए-शब की ये तन्हाइयाँ भी डसती हैं ये चाँदनी भी नज़र आती है कफ़न की तरह तमाम शहर है बेगाना लोग ना-मानूस वतन में अपने हैं हम एक बे-वतन की तरह ख़याल-ए-दोस्त न हसरत न आरज़ू न उम्मीद ये दिल है अब किसी उजड़े हुए चमन की तरह सुकून-ए-क़ल्ब तो किया है क़रार-ए-जाँ भी लुटा तुम्हारी याद भी आई तो राहज़न की तरह अजब नहीं कि सर-ए-शहर-ए-आरज़ू 'नादिर' हमारा दिल भी जले शम-ए-अंजुमन की तरह