काटी है कैसे सुब्ह कहाँ शाम भूल जाएँ ठहरें कहीं ये गर्दिश-ए-बे-नाम भूल जाएँ पलकों पे आ सजा लें सभी ख़ार पाँव के क्यूँ चलते चलते होने लगी शाम भूल जाएँ बहती हवाओं पे नए नौहे लिखा करें इस घूमती ज़मीन का अंजाम भूल जाएँ खुल जाएँ पानियों में जज़ीरों की खिड़कियाँ तुझ से मिलें तो रूह का कोहराम भूल जाएँ ये तो न कर सके कि कोई शग़्ल ढूँड लें इतना न हो सका कि तिरा नाम भूल जाएँ