कटते ही डोर साँस की नाम-ओ-नुमूद ख़ाक होना है एक रोज़ ये क़स्र-ए-वजूद ख़ाक टूटा किसी का दिल जो गिरा दूसरी तरफ़ मीज़ान में पड़ा तिरा रख़्त-ए-सुजूद ख़ाक तज्सीम कर रहा है वो दस्त-ए-कमाल से आतिश-परस्त दहरिये मुस्लिम हुनूद ख़ाक इस महफ़िल-ए-तरब में नहीं चाशनी कोई दिल में रमक़ न हो अगर बज़्म-ए-सुरूद ख़ाक बढ़ने लगे हैं चार-सू रस्मों के दाएरे ठोकर लगा के पाँव की कर दूँ क़ुयूद ख़ाक ये क़ौम उन ही रास्तों पे चल पड़ी है फिर जिन पर हुईं थीं एक दिन आद-ओ-समूद ख़ाक सीने में कोई आग है 'अरशद' लगी हुई वर्ना हमारी आँख से उठता ये दूद ख़ाक