कौन कहता है ग़म मुसीबत है ये भी मौला की ख़ास रहमत है लोग क्यूँ ज़िंदगी पे मरते हैं मेरे हक़ में तो ये क़यामत है हीला-जूई है उस की रहमत की कब इबादत कोई इबादत है शुक्र ने'मत का जब नहीं करता क्यूँ मुसीबत की फिर शिकायत है मुझ से बद-तर बहुत हैं आलम में क़ाबिल-ए-रश्क मेरी हालत है क़ल्ब-ए-मोमिन न ग़म से घबराए सुनते हैं बा'द-ए-रंज राहत है मुझ से होती नहीं ग़ज़ल 'नादिर' इस क़दर मुज़्महिल तबीअ'त है