सर-ब-सर पैकर-ए-इज़हार में लाता है मुझे और फिर ख़ुद ही तह-ए-ख़ाक छुपाता है मुझे कब से सुनता हूँ वही एक सदा-ए-ख़ामोश कोई तो है जो बुलंदी से बुलाता है मुझे रात आँखों में मिरी गर्द-ए-सियह डाल के वो फ़र्श-ए-बे-ख़्वाबी-ए-वहशत पे सुलाता है मुझे गुम-शुदा मैं हूँ तो हर सम्त भी गुम है मुझ में देखता हूँ वो किधर ढूँडने जाता है मुझे दीदनी है ये तवज्जोह भी ब-अंदाज़-ए-सितम उम्र भर शीशा-ए-ख़ाली से पिलाता है मुझे हमा-अंदेशा-ए-गिर्दाब ब-पहलू-ए-नशात मौज-दर-मौज ही साहिल नज़र आता है मुझे