कौन कहता है कि तेरी जुस्तुजू करते रहे सादा-दिल उश्शाक़ शरह-ए-आरज़ू करते रहे ग़म की बस्ती में करोड़ों चाक-दामान-ए-अलम ज़ीस्त के हर दौर में फ़िक्र-ए-रफ़ू करते रहे जिस ने बख़्शा ही नहीं कुछ सोज़िश-ए-ग़म के सिवा ज़िंदगी भर हम उसी की आरज़ू करते रहे ये थी ना-समझी हमारी छोड़ कर अपना दयार तेरे कूचे में तलाश-ए-रंग-ओ-बू करते रहे ऐ दिल-ए-ख़ाना-ख़राब उस पैकर-ए-गुल की तलाश दर-ब-दर सहरा-ब-सहरा कू-ब-कू करते रहे