कौन किस के साथ रहता है मकाँ होते हुए भी कौन चलता है ज़मीं पर आसमाँ होते हुए भी कौन जाने ख़ैर का पहलू कहीं रौशन हो शायद हम तुम्हारे शहर में हैं बे-अमाँ होते हुए भी तेज़ बारिश में भी कितने प्यास के मारे पड़े हैं धूप में जलते हैं कितने साएबाँ होते हुए भी इस अँधेरी रात में वो चाँद निकलेगा यहाँ से इक दरीचा ऐन-मुमकिन है गुमाँ होते हुए भी नौ-शगुफ़्ता इक शजर का क़द निकलना है क़यामत और उस का बे-ख़बर होना जवाँ होते हुए भी कोई तितली गुल का चेहरा चूमती रहती है अक्सर फैलती रहती है ख़ुशबू राएगाँ होते हुए भी इस घने जंगल का जलना अपनी सरहद से निकलना बस्तियों को याद है सब कुछ धुआँ होते हुए भी माही-ए-बे-आब सा बेताब है सारा ज़माना और मैं शादाब हूँ आतश-बजाँ होते हुए भी ज़िंदगी मैं ने तुम्हें हर हाल में आबाद रक्खा रोते हँसते जीते मरते बे-निशाँ होते हुए भी राह-ए-शेरिस्ताँ से गुज़रा है कोई ख़ुर्शीद-'अकबर' 'मीर' ओ 'ग़ालिब' का इलाक़ा दरमियाँ होते हुए भी