कौन सा वो ज़ख़्म-ए-दिल था जो तर-ओ-ताज़ा न था ज़िंदगी में इतने ग़म थे जिन का अंदाज़ा न था हम निकल सकते भी तो क्यूँ कर हिसार-ए-ज़ात से सिर्फ़ दीवारें ही दीवारें थीं दरवाज़ा न था उस की आँखों से नुमायाँ थी मोहब्बत की चमक उस के चेहरे पर नई तहज़ीब का ग़ाज़ा न था इतनी शिद्दत से कभी आया न था उस का ख़याल ज़ख़्म-ए-दिल पहले कभी इतना तर-ओ-ताज़ा न था उस की हर इक सोच में है इक मुसलसल इंतिशार इस तरह बिखरा हुआ इस दिल का शीराज़ा न था दूर कर देगा ज़माने से मुझे मेरा ख़ुलूस मुझ को अपनी इस सलाहियत का अंदाज़ा न था 'अर्श' उन की झील सी आँखों का उस में क्या क़ुसूर डूबने वालों को गहराई का अंदाज़ा न था