क़ुर्बत भी नहीं दिल से उतर भी नहीं जाता वो शख़्स कोई फ़ैसला कर भी नहीं जाता आँखें हैं कि ख़ाली नहीं रहती हैं लहू से और ज़ख़्म-ए-जुदाई है कि भर भी नहीं जाता वो राहत-ए-जाँ है मगर इस दर-बदरी में ऐसा है कि अब ध्यान उधर भी नहीं जाता हम दोहरी अज़िय्यत के गिरफ़्तार मुसाफ़िर पाँव भी हैं शल शौक़-ए-सफ़र भी नहीं जाता दिल को तिरी चाहत पे भरोसा भी बहुत है और तुझ से बिछड़ जाने का डर भी नहीं जाता पागल हुए जाते हो 'फ़राज़' उस से मिले क्या इतनी सी ख़ुशी से कोई मर भी नहीं जाता