खा लेते हैं ग़ुस्से में तलवार कटारी क्या हम लोग हैं सौदाई औक़ात हमारी क्या बिजली से लिपट कर हम भसमंत हुए आख़िर उस को तिरे दामन की समझे थे कनारी क्या जूँ शम्अ सर-ए-शब से मैं रोने को बैठा हूँ ता आख़िर-ए-शब देखूँ दिखलाए ये ज़ारी क्या घबराई जो फिरती है इस तौर सबा हर-सू आती है गुलिस्ताँ को उस गुल की सवारी क्या रोना मिरी आँखों से जब तक कि न सीखेगा जा बैठ तू रोवेगा ऐ अबर-ए-बहारी क्या सोते से तो उठने दो टुक उस को सहर होते देखोगे कि मचलेगी वो चश्म-ए-ख़ुमारी क्या नर्गिस की ख़जिल आँखें इतनी तो न थीं गाहे उस चश्म-ए-मुफ़त्तिन से बाज़ी कोई हारी क्या औक़ात मुजर्रद की किस तरह बसर होवे जंगल है ये बिकती है याँ नान नहारी क्या ऐ 'मुसहफ़ी' मैं उस को जी जान से गो चाहा आख़िर को हुआ हासिल जुज़-ज़िल्लत-ओ-ख़्वारी क्या