ख़ाक ने अपना तसल्लुत था जमाया जिस दम मैं ने अफ़्लाक को सोचों से उठाया जिस दम मेरे अतराफ़ भी कोहराम का बादल बरसा मैं ने इक शख़्स को कुछ देर ही सोचा जिस दम राब्ता टूट के हैरानी तलक आ पहुँचा एक अपना मिरा अग़्यार में बैठा जिस दम वक़्त तो आन ही पहुँचा था तिरे वस्ल का भी सिलसिला साँस का उस रूह से टूटा जिस दम मेरी आवाज़ मिरे पास पलट आई थी मैं ने तन्हाई में अपनों को पुकारा जिस दम रो पड़ा पेड़ किसी दर्द की लय को ले कर इक परिंदे ने हरी शाख़ को नोचा जिस दम दिल मिरा कोसता रहता है उसी पल को 'हुमा' एक पत्थर से बने बुत को था पूजा जिस दम