ख़ाक उड़ती है ख़रीदार कहाँ खो गए हैं जिन से थी रौनक़-ए-बाज़ार कहाँ खो गए हैं सब की पेशानियाँ सज्दों से मुनव्वर हैं यहाँ ऐ ख़ुदा तेरे गुनहगार कहाँ खो गए हैं सर-निगूँ बैठे हैं सब ज़िल्ल-ए-इलाही के हुज़ूर क्या हुए साहिब-ए-दस्तार कहाँ खो गए हैं जिन के दामन में दुआओं के ख़ज़ाने थे बहुत वो सख़ावत के अलम-दार कहाँ खो गए हैं ऐसा एहसास-ए-ज़ियाँ तो कभी गुज़रा ही न था दोस्त क्या हुए अग़्यार कहाँ खो गए हैं ढूँढती फिरती है पागल की तरह शाम-ए-अवध लखनऊ तेरे तरहदार कहाँ खो गए हैं ख़ाना-ए-जाँ में अँधेरा ही अँधेरा है तमाम वो फ़रोज़ाँ दर-ओ-दीवार कहाँ खो गए हैं मंज़िलें जिन की क़दम-बोसी पे नाज़ाँ थीं बहुत वो जरी क़ाफ़िला-सालार कहाँ खो गए हैं ढूँडता फिरता हूँ दरवेश ओ क़लंदर 'अख़्तर' सब के सब आईना-किरदार कहाँ खो गए हैं