ख़ाना-बर्बाद हुए बे-दर-ओ-दीवार रहे फिर भी हम उन की इताअत में गिरफ़्तार रहे ठोकरें खा के भी शाइस्ता-मिज़ाजी न गई फ़ाक़ा-मस्ती में भी हम साहिब-ए-दस्तार रहे अपनी सूरत से हिरासाँ है हर इक शख़्स यहाँ कौन इस शहर में अब आइना-बरदार रहे आते जाते हुए मौसम को दुआ देते रहो कम से कम शाख़-ए-तमन्ना तो समर-दार रहे दस्तकें होंगी दर-ए-दिल पे कोई आएगा रात भर हम इसी उम्मीद में बेदार रहे दर-ब-दर फिरते रहे ख़ाना-ब-दोशों की तरह ज़िंदगी हम तिरी तहवील में बे-कार रहे ख़ाक क्यूँ उड़ने लगी राह-ए-जुनूँ में 'अख़्तर' रसन-ओ-दार का कोई तो तलबगार रहे