ख़ाक-ए-अग़्यार से यारब मुझे पैवंद न कर मुझ को इन चाँद सितारों में नज़र-बंद न कर एक ही बार छलक जाने दे पैमाना मिरा लम्हा लम्हा मुझे आज़ुर्दा-ओ-ख़ुरसंद न कर तुझ को पहचान लें या तुझ को ख़ुदा कह बैठें अपने दीवानों को इतना भी ख़िरद-मंद न कर शहर-ए-दिल्ली तो अमानत है मिरे पुरखों की इस को बे-रंग-ओ-सदा मिस्ल-ए-समरक़ंद न कर वाहिमा हो तो कभी हर्फ़-ए-यक़ीं तक पहुँचे कुछ न हो जब तो हिकायात क़लम-बंद न कर इश्क़ आसाँ है मगर रोग है दीवानों का बार-ए-ग़म यूँही बहुत है उसे दो-चंद न कर क्या ख़बर कब ये उतर जाए रगों में 'नामी' ज़हर को ज़हर ही रहने दे इसे क़ंद न कर