खड़ा था कौन कहाँ कुछ पता चला ही नहीं मैं रास्ते में किसी मोड़ पर रुका ही नहीं हवाएँ तेज़ थीं इतनी कि एक दिल के सिवा कोई चराग़ सर-ए-रहगुज़र जला ही नहीं कहाँ से ख़ंजर-ओ-शमशीर आज़माता मैं मिरे अदू से मिरा सामना हुआ ही नहीं दुखों की आग में हर शख़्स जल के राख हुआ किसी ग़रीब के दिल से धुआँ उठा ही नहीं हमारा शहर-ए-तमन्ना बहुत हसीं था मगर उजड़ के रह गया ऐसा कि फिर बसा ही नहीं वो बन गया मिरा नाक़िद पता नहीं क्यूँ कर मिरा कलाम तो उस ने कभी पढ़ा ही नहीं मैं अपने दौर की आवाज़ था मगर 'ख़ावर' किसी ने बज़्म-ए-जहाँ में मुझे सुना ही नहीं