ख़फ़ा सय्याद-ओ-गुलचीं और मुख़ालिफ़ बाग़बाँ हम से छुटेगा इक न इक दिन ये चमन ये आशियाँ हम से छुड़ाया किस तरह से बाग़बाँ ने आशियाँ हम से इलाही कोई सुन लेता हमारी दास्ताँ हम से बयाँ क्या ख़ाक हो सय्याद हाल-ए-गुलिस्ताँ हम से रहा आबाद ही कै दिन हमारा आशियाँ हम से कलेजा अपना अपना थाम लें अहबाब महफ़िल में अगर सुनने को बैठे हैं हमारी दास्ताँ हम से ख़मोशी में कही जिस तरह लौह-ए-क़ब्र ने 'वासिफ़' बयाँ उस लुत्फ़ से होती न अपनी दास्ताँ हम से उन्हें क्या इल्म था अफ़्साना-ए-दर्द-ओ-अलम होगा बहुत पछताए वो सुन कर हमारी दास्ताँ हम से रही मोहर-ए-दहन फ़िक्र-ए-मईशत उम्र भर 'वासिफ़' वगर्ना कम निकलते दहर में जादू-बयाँ हम से