ख़फ़ा उस से क्यूँ तू मिरी जान है 'असर' तो कोई दम का मेहमान है तेरे अहद में सख़्त अंधेर है कि इश्क़ ओ हवस हर दो यकसान है कहूँ क्या ख़ुदा जानता है सनम मोहब्बत तिरी अपना ईमान है दिल-ओ-ग़म में और सीना-ओ-दाग़ में रिफ़ाक़त का याँ अहद-ओ-पैमान है तुझे भी कभू कुछ मिरा है ख़याल मुझे मरते मरते तिरा ध्यान है न देखा फिर आख़िर कि मुश्किल पड़ी उधर देखना ऐसा आसान है क़यामत यही है कि अबरू कमाँ तुझे जिन ने देखा सो क़ुर्बान है गुलों की तरह चाक का ऐ बहार मुहय्या हर इक याँ गरेबान है भला दीद कर लीजिए मुफ़्त है कि अब तक सितमगर वो अंजान है मुझे क़त्ल करते तो ऊनें क्या पर अपने किए पर पशेमान है नहीं है ये क़ातिल तग़ाफ़ुल का वक़्त ख़बर ले कि बाक़ी अभी जान है तअम्मुल कहाँ वर्ना चूँ ग़ुंचा याँ जो सर है सो ग़र्क़-ए-गरेबान है ये क्या हो गया देखते देखते 'असर' मैं तो मैं वो भी हैरान है