ख़िज़ाँ की ज़द पे था दुश्मन की भी निगाह में था वो साया-दार शजर जो हमारी राह में था ज़माना याद भी करता तो किस तरह हम को हमारा नाम फ़क़ीरों में था न शाह में था बुलंदियों से गिरा तो ज़मीन भी न मिली वजूद अपना सँभाले हुए वो चाह में था जिन्हें ग़ुरूर हवाओं पे था वो ख़ार हुए वो सर-बुलंद रहा जो तिरी पनाह में था मिरे ख़िलाफ़ हुआ है जो फ़ैसला 'क़ैसर' मिरा हरीफ़ भी शामिल मिरे गवाह में था