ख़िज़ाँ में सूख गया मैं तो ये मुक़द्दर था वो नौनिहाल कहाँ है जो मेरे अंदर था वो आबले जो रह-ए-आरज़ू में फूट गए सफ़र का लुत्फ़ उन्हीं आबलों में मुज़्मर था नुक़ूश-ए-दर्द तराशे ग़मों के रंग भरे मैं जैसे दस्त-ए-मशिय्यत में कोई पत्थर था तुम्हारी याद के साए भी कुछ सिमट से गए ग़मों की धूप तो बाहर थी अक्स अंदर था मिरा वजूद भी तारीख़ है ज़माने की मुझे भी पढ़ के कभी देखते तो बेहतर था दयार-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र कुछ धुआँ धुआँ सा है जुनूँ की शमएँ थीं रौशन तो ख़ूब मंज़र था वही है आज ज़मीं पर ख़राब-ओ-ख़स्ता-ओ-ख़्वार जो अपनी शान में नूरानियों से बेहतर था 'शमीम' आज सर-ए-रहगुज़ार-ए-ज़ीस्त मिला जो तह-ब-तह घने ज़ख़्मों का एक पैकर था