ख़िज़्र जिस से बने उस आब-ए-बक़ा से डरिए लम्बी उम्रों से बुज़ुर्गों की दुआ से डरिए हम-क़दम बन गए उस के तो ठिकाना ही नहीं आती जाती हुई बे-सम्त हवा से डरिए निय्यत-ए-जुर्म ही है जुर्म का आग़ाज़ यहाँ जो न की हो उसी ना-कर्दा ख़ता से डरिए सानेहा रूनुमा हो जाएगा शक़ होने पर तेशे को रोकिए पत्थर की अना से डरिए पत्ता पत्ता यहाँ बैठा है समेटे ख़ुद को गुनगुनाती हुई इस बाद-ए-सबा से डरिए और शय हैं तो कोई डरने की हाजत ही नहीं आप बंदे हैं ख़ुदा के तो ख़ुदा से डरिए रहमतें ज़हमतें बन जाती हैं अक्सर ऐ 'आह' हो न ये सैल-ए-बला काली घटा से डरिए