ख़िरद की फ़ित्ना-सामानी जो पहले थी वो अब भी है

ख़िरद की फ़ित्ना-सामानी जो पहले थी वो अब भी है
मिरे दिल की परेशानी जो पहले थी वो अब भी है

उड़ा दीं धज्जियाँ क़ानून-ए-ताज़ीरात की हम ने
जराएम की फ़रावानी जो पहले थी वो अब भी है

ग़रीबों के घरों में एक भी रौनक़ नहीं बाक़ी
बहार-ए-क़स्र-ए-सुल्तानी जो पहले थी वो अब भी है

नज़र आती हैं हर जानिब नई आबादियाँ लेकिन
दिलों की ख़ाना-वीरानी जो पहले थी वो अब भी है

अगरचे अहल-ए-ज़र ता'मीर के वा'दे तो करते हैं
मगर तख़रीब-सामानी जो पहले थी वो अब भी है

तबस्सुम है लबों पर या तबस्सुम का जनाज़ा है
दिलों की मर्सिया-ख़्वानी जो पहले थी वो अब भी है

ग़रीबों के लहू से क़ुमक़ुमे रौशन हैं महलों के
हवस की ज़ुल्म-सामानी जो पहले थी वो अब भी है

कहीं सूबा-परस्ती है कहीं फ़िरक़ा-परस्ती है
वही तफ़रीक़-ए-इंसानी जो पहले थी वो अब भी है

ग़ुलामी आज भी है और आक़ाई की सूरत में
अदा-ए-जब्र-ए-सुल्तानी जो पहले थी वो अब भी है

है 'रूमी' ख़ुश-नवा बे-शक हो कोई भी यहाँ उनवाँ
अदा शान-ए-ग़ज़ल-ख़्वानी जो पहले थी वो अब भी है


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