ख़ज़ाने भी मिलें इस के एवज़ तो हम न बेचेंगे हमारा ग़म है मज़लूमों का ग़म ये ग़म न बेचेंगे कुहिस्तानों से पत्थर काट कर लाएँगे हम लेकिन किसी ज़ालिम के हाथों ज़ख़्म का मरहम न बेचेंगे बला से धूल फाँकें या पुराने चीथड़े पहनें मगर यारो मता-ए-इल्म-ओ-दानिश हम न बेचेंगे किसी दरबार में जा कर अदब और फ़न की सूरत में तुम्हारी अम्बरीं ज़ुल्फ़ों के पेच-ओ-ख़म न बेचेंगे हमारा इंक़लाब आएगा जब तो काम आएगा अभी अपनी तमन्ना का उजाला हम न बेचेंगे गुलिस्ताँ बेच कर खाना हवस-कारों का शेवा है चमन वालो पपीहों का तरन्नुम हम न बेचेंगे भरी महफ़िल में 'दौराँ' आज हम फिर अहद करते हैं जो है इंसानियत की आस वो परचम न बेचेंगे