ख़ला से किब्रिया तक का सफ़र था और हम थे थिरकता चाक था इक कूज़ा-गर था और हम थे तुम्हीं को देखते गुज़रे थे इक सच्चाई से हम जहाँ आशोब ही हद-ए-नज़र था और हम थे बड़ी मुश्किल से की दरयाफ़्त हम ने रग़बत-ए-ग़म फिर इस के बाद तो आसाँ सफ़र था और हम थे गुज़ारी उम्र हम ने आबियारी में किसी की वो अपना एक कार-ए-बे-समर था और हम थे गढ़ी हो नाल जिस दर पे बुलाती है वो मिट्टी यही होना था आख़िर फिर वो दर था और हम थे