सऊबत का बदल आसूदगी का पल नहीं पकड़ा सफ़र में धूप के हम ने कभी छागल नहीं पकड़ा कहीं हम से ज़ियादा और को उन की ज़रूरत हो यही कुछ सोच कर हम ने कभी बादल नहीं पकड़ा कि जब से मुर्दों की सौदागरी हाथ आ गई उस के शिकारी ने पलट कर फिर कभी जंगल नहीं पकड़ा परिंदे जो गए लौटे नहीं फिर आशियानों में दरख़्तों ने भी उस के बाद कोई फल नहीं पकड़ा सदा भीगी रहीं ख़ौफ़-ए-ख़ुदा की रौशनाई से मिरी आँखों ने दुनिया का दिया काजल नहीं पकड़ा क़नाअत आज पर की है परिंदों की तरह मैं ने मिरे हाथों ने 'रहमानी' किसी पल कल नहीं पकड़ा