ख़ाली है तलब-गारों से बाज़ार-ए-तमन्ना आता ही नहीं कोई ख़रीदार-ए-तमन्ना हर चंद कि रहता है वो बेज़ार-ए-तमन्ना दामन में समेटे है मगर ख़ार-ए-तमन्ना सब अपनी ख़मोशी का लहू चाट रहे हैं करता ही नहीं अब कोई इज़्हार-ए-तमन्ना इस क़स्र-ए-हवस से कोई बाहर नहीं आता कहने को तो हर शख़्स है बेज़ार-ए-तमन्ना पैवंद-ए-ज़मीं कर न सका सैल-ए-बला भी है सर-ब-फ़लक आज भी दीवार-ए-तमन्ना कोई भी नहीं कम है किसी से यहाँ 'अख़्तर' हर शख़्स है इस शहर में शहकार-ए-तमन्ना