ख़लिश दिल की रफ़ीक़-ए-शाम-ए-तन्हाई भी होती है मगर जब हद से बढ़ जाती है रुस्वाई भी होती है फ़राहम जिन से सामान-ए-जराहत होते रहते हैं उन्ही नज़रों में दर-पर्दा मसीहाई भी होती है नज़र महसूस कर सकती नहीं जिस की लताफ़त को किसी की मस्त आँखों में वो रानाई भी होती है यही दुनिया जो हँसती है मिरे हाल-ए-परेशाँ पर यही दुनिया कभी मेरी तमन्नाई भी होती है अदा-ए-पुर्सिश-ए-अहवाल पर कहना मिरा आख़िर जफ़ा दिल पर ब-अंदाज़-ए-शकेबाई भी होती है फ़क़त नादानियों पर आए क्यों इल्ज़ाम-ए-बर्बादी कहीं वज्ह-ए-तबाही सिर्फ़ दानाई भी होती है मोहब्बत का वो आलम भी क़यामत-ख़ेज़ है 'ज़ैदी' गवारा जिस की ख़ातिर दिल को रुस्वाई भी होती है