ख़लिश सुकूँ का मुदावा नहीं तो कुछ भी नहीं शिकस्त-ए-साज़ में नग़्मा नहीं तो कुछ भी नहीं जिसे ज़माना कहे इज़्तिराब का आलम वो ज़िंदगी का सहारा नहीं तो कुछ भी नहीं सरोद-ए-बाँग-ए-मोअज़्ज़िन नहीं दलील-ए-सहर मिज़ा पे सुब्ह का तारा नहीं तो कुछ भी नहीं हुआ करें तिरे कान आश्ना-ए-शोर-ए-जरस सफ़र का दिल में इरादा नहीं तो कुछ भी नहीं ये माना क़ल्ब-ए-ज़मीं तक तिरी पहुँच है मगर तलाश-ए-औज-ए-सुरैया नहीं तो कुछ भी नहीं हमारे बुतकदा-ए-दिल में ढूँड तो ज़ाहिद यहीं कहीं तिरा काबा नहीं तो कुछ भी नहीं