ख़ल्वत-ए-ज़ात है और अंजुमन-आराई है बज़्म सी बज़्म है तन्हाई सी तन्हाई है वो है ख़ामोश मगर उस के सुकूत-ए-लब पर रक़्स करता हुआ इक आलम-ए-गोयाई है जब अँधेरे मिरी आँखों का लहू चाट चुके तब इन आँखों में रिफ़ाक़त की चमक आई है अब ख़ुदा उस को बनाया है तो याद आता है जैसे उस बुत से तो बरसों की शनासाई है नींद टूटी है तो एहसास-ए-ज़ियाँ भी जागा धूप दीवार से आँगन में उतर आई है पस-ए-दीवार-ए-अबद देख रहा हूँ ऐ दोस्त मेरी आँखों में मिरे अहद की बीनाई है मेरे चेहरे पे है वो अक्स कि आईना-ए-ज़ात कभी मेरा कभी ख़ुद अपना तमाशाई है मेरे सच में तो कोई खोट नहीं था 'सरशार' फिर ये क्यूँ ज़हर से तिरयाक की बू आई है