बिछड़ने की सुहूलत मिल न जाए मकीं को इज़्न-ए-हिजरत मिल न जाए मैं काँप उठती हूँ इतना सोच कर ही कि तू हस्ब-ए-ज़रूरत मिल न जाए हथेली से न मस हो जाए नॉवेल फ़साने से हक़ीक़त मिल न जाए बयाबानों से जो घबरा के लौटे उन्हें बस्ती में वहशत मिल न जाए मैं विर्द-ए-सूरा-ए-रहमान रक्खूँ मुझे जब तक हिदायत मिल न जाए तवातुर से अगर मिलते रहे हम कहीं अपनी तबीअत मिल न जाए बड़ी शिद्दत से जीना चाहती थी मगर अब ये इजाज़त मिल न जाए