ख़मीर मेरा उठा वफ़ा से वजूद मेरा फ़क़त हया से कुछ और बोझल हुआ मिरा दिल घुटी हुई दर्द की फ़ज़ा से बरस पड़े हसरतों के बादल नज़र पे छाई हुई घटा से है वहशतों का सफ़र मुसलसल बढ़ा जुनूँ हिज्र की सज़ा से हथेलियों पर न रच सकी वो जो नाम लिक्खा तिरा हिना से बना गई तुम को और चंचल झुकी जो मेरी नज़र हया से गुलों पे इक बे-ख़ुदी सी छाई चमन में बहकी हुई सबा से है वज्द क्यूँ शाख़-ए-गुल पे तारी लिपट के झूमी वो क्यूँ हवा से महक की किरनें चमन में रक़्साँ गुलाब की रेशमी क़बा से कली को चूमा गुलों को नोचा किसी ने सीमाब सी अदा से है तो मसीहा तो कर मुदावा है सोच ज़ख़्मी तिरी जफ़ा से वही अदा बे-नियाज़ियों की तो काम कब तक न लूँ अना से यक़ीन कैसे करूँ मैं 'बानो' सुकून क्या दे सकें दिलासे