ख़ामोश भी रह जाए और इज़हार भी कर दे तस्वीर वो हाज़िक़ है जो बीमार भी कर दे हम से तो न होगी कभी इस तरह मोहब्बत जो हद से गुज़रने पे गुनहगार भी कर दे इस बार भी तावील-ए-शब-ओ-रोज़ नई है मुमकिन है वो क़ाइल मुझे इस बार भी कर दे अफ़्लाक-तलाशी में हूँ उस बुर्ज की ख़ातिर जो मेरे ख़ज़ाने को फ़लक पार भी कर दे आहंग-ए-तसव्वुर से जो लर्ज़िश है रगों में उस को मिरे ख़ामे का सरोकार भी कर दे वो बैत जो मसदूद में रौज़न का सबब हैं उन को गुल-ए-आवेज़ा-ए-दीवार भी कर दे क़िर्तास पे 'तफ़ज़ील' रवाँ जूए कली-रंग शायद मिरे लफ़्ज़ों को मज़ेदार भी कर दे